Tuesday 27 January 2015

"तन्हाई"

तन्हाई और मैं दोनों एक ही मन
तन्हाई और मैं दोनों एक बदन
रहना कठिन एक दूजे के बिन
तन्हाई नें मुझसे कहा एक दिन

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना
तन्हाई को तुम द़िल में रखना
तन्हाई को तन्हा मत करना।

ग़म को भुलानें की ख़ातिर दुनियाँ मैख़ानें जाती है
प्याला पीकर ग़म की कहानी औरों को वह सुनाती है
ग़म का बँटवारा करके जब महफ़िल घर को आती है
तब ऐ ग़म के नादानों तन्हाई ही साथ निभाती है
देख हमारी दीन-दशा तन्हाई यही फ़रमाती है

तन्हाई से नफरत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना........

सड़कें तन्हा रहतीं हैं महफ़िल भी तन्हा हो जाती
चिड़िया दाना चुग करके जब लौट नशेमन को जाती
और फ़कीरों की दुनियाँ जब अपनें धुन में खो जाती
रात के इस अँधियारे में जब दुनियाँ सारी सो जाती
तब मुझे अकेले पा करके तन्हाई मुझसे कहती है

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना.......

तन्हा-तन्हा शाम को जब मैं घर के अन्दर आता हूँ
माचिस लेकर दीपक पर मैं शमाँ ज़लानें जाता हूँ
दीपक हँसकर कहता है तन्हाई दूर भगाता हूँ
ऐसा लगता तन्हाई से रिश्ता टूटा जाता है
ज़ोर-ज़ोर से तन्हाई, तन्हाई मैं चिल्लाता हूँ
आशिक ठहरा उसका मैं माशूक मेरी तन्हाई है
गले लगाकर सारी रात मैं उसका ही गीत सुनाता हूँ

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना.......

कुछ दिन तन्हाई में मैं द़रिया के किनारे जाता था
दरिया के लहरों, साहिल को सहमा-सहमा पाता था
झुंड उसी पर चढ़ करके साहिल से साहिल आता था
सूरज का परिवार समन्दर में जब डुबकी लगाता था
चाँद, सितारों से मिलकर जब महफ़िल खूब सज़ाता था
जैसे-जैसे मरघट सा सन्नाटा छाता जाता था
वैसे-वैसे अन्दर से एक राग़ उभरता जाता था

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना.......

मंदिर की ख़ामोशी में भी देख वही तन्हाई है
मस्ज़िद में जब-जब नमाज़ हो तब भी एक तन्नहाई है
गिरज़ाघर, गुरूद्वारों की दीवारों में तन्हाई है
जिधर नज़र पड़ती है मेरी वहीं-वहीं तन्हाई है
जीवन भर तुम किसी भाँति यदि तन्हाई से दूर रहे
तो कब्र के अन्दर भी तन्हा और मरघट पर तन्हाई है
जहाँ-जहाँ पर गया वहाँ पर तन्हाई को पाता हूँ
एक बार फिर पुनः यहाँ संगीत वही दुहराता हूँ

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना
तन्हाई को तुम दिल में रखना
तन्हाई को तन्हा मत करना।

......राजेश कुमार राय.......

Friday 23 January 2015

मग़रूर की महफ़िल में सब कुछ तो है मगर......

बीबी का कत्ल कर दिया पैसे के वास्ते
फिर भी वो कह रहा है गुनाहग़ार नहीं है।

मग़रूर की महफ़िल में सब कुछ तो है मगर
मौंसिकी का एक भी फ़नकार नहीं है।

जिस घर में बेटियाँ नहीं तो रूह भी नहीं
दौलत है, शोहरत है, झनकार नहीं है।

रिश्तों का नाम हमनें दिया जितनें भी उसमें
एक माँ के जैसा कोई भी किरदार नहीं है।

चन्द सिक्कों के लिये बेंच दे ईमाँ अपना
"राजेश" इस तरह का कलमकार नहीं है।

.........राजेश कुमार राय.........

Friday 16 January 2015

समन्द़र की प्यास देखकर मुझको यही लगा....

                          (1)
समन्दर की प्यास देखकर मुझको यही लगा
जैसे किसी अमीर की दस्तार बिक गयी।
                          (2)
सारा शहर दहशत की गुँजलक में कैद है
अफवाह हैं कि, ज़श्न मनाते नहीं थकते।
                          (3)
इस दौर में माली ही शज़र काट रहे हैं
ऐसे में दरख्तों की सद़ा कौन सुनेंगा।
                          (4)
तीर खा के परिन्दे नें शिकारी से ये कहा
मैं तो मर जाऊँगा, तू भूख मिटा ले अपनी।
                          (5)
शज़र,साँसों की खुराकें दे के भी खामोंश रहते हैं
हम कुछ नहीं देकर भी कितना शोर करते हैं।
                          (6)
वो मिलता है सबसे बड़े सलीके से
ऐसी तहज़ीब उसकी माँ नें सँवारा होगा।
                          (7)
बड़े अरमान से चिड़ियों नें बनाया था घोसला
मगर तूफान की रफ्तार नें बर्बाद कर दिया।
                          (8)
दग़ाबाजी, बेवफ़ाई, मक्कारी सब कुछ तो कर लिया
अब चलो थोड़ी सी वफादारी सीख लें।
                          (9)
ज़िन्दगी का कहा मान के म़क्तल चला गया
मुस्कुरा के कहा मौंत नें कि तुमको शुक्रिया।

    ........राजेश कुमार राय.......

Thursday 15 January 2015

पहली ही मुलाकात में परवाना मर गया.....

                     (1)
उसको जुनूँन है मेरी हस्ती मिटा दे,इसलिये
हर वक्त अपनें चाकुओं को धार देता है
एक तरफ मेरी अना, एक तरफ उसका गुरूर
अब देखते हैं कौन बाजी मार लेता है।
                     (2)
एक शख्स दग़ा कर रहा है हर किसी के साथ
नज़रों से ज़मानें की मुकम्मल उतर गया
इज़हारे मुहब्बत का ज़ुनूँ गौर से देखो
पहली ही मुलाकात में परवाना मर गया।
                     (3)
साहिल के सुकूँ से मेरा दिल ऊब गया है
मौज़ों से उलझनें का मज़ा ले रहा हूँ मै
जिस-जिस की तमन्ना हो आ जाये मेरे साथ
दुनियाँ के हौसलों को सदा दे रहा हूँ मै।
                     (4)
कोई सपना बनाता हूँ वो सपना टूट जाता है
कोई भी काम करता हूँ, मुकद्दर रूठ जाता है
किसी का घर जलानें वालों थोड़ा होश में आओ
एक घर बनानें में पसीना छूट जाता है।
               ....राजेश कुमार राय।.....

Sunday 11 January 2015

उदास मैं गया था गुलों के दयार में.....

                             (1)
 फूलों का प्यार देखकर हैरान रह गया
 तमाम रंग मेरे बदन पर चढ़ा दिया
उदास मैं गया था गुलों के द़यार में
खुशबू नें मेरे दिल का तब़स्सुम बढ़ा दिया।
                              (2)
एक लड़की के जीवन की यही रस्मो-रिवायत है
बचपन के एक आँगन से रिश्ता तोड़ जाती है
सबसे बड़ी हिज़रत तो एक बेटी की हिज़रत है
परायों के लिये जो माँ का आँचल छोड़ जाती है।
                            (3)
दुश्मन की मौंत पर मेंरे आँसू छलक गये
खुद़ गया और मेरी अना साथ ले गया
उसके बगैर ज़िन्दगी वीरान हो गयी
अपनें वज़ूद का मुझे एहसास दे गया।
                            (4)
सारा अनाज़ मालिकों के घर चला गया
सब मज़दूर की मेंहनत थी ज़मीदार की नहीं
जुगुनूँ नें कहा चाँद से ललकार मुझमें
रोशनीं तो बहुत कम है पर उधार की नहीं।

       -------राजेश कुमार राय।-----
    

Wednesday 7 January 2015

हिमालय की चीख

विधि नें यह खेल जो खेला है
यह महाप्रलय की बेला है,
धरती की चित्कार है यह
और पर्वत की ललकार है यह
दरिया की उफनती धारों से
इन्सानों को फटकार है यह
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

देवभूमि पर इन्सानों का
बहुत दिनों से हमला था
चोटें खाता बार-बार और
बार-बार वह सम्हला था
पर्वत,नदियाँ क्रुद्ध हुँई तो
लाश बिछ गया पावन में
ईश्वर की महिमा को देखो
आग लगा दी सावन में
हम भी रोये तुम भी रोये
रोनें का कुछ लाभ नहीं,
नहीं बचा है नहीं बचा
मत पीड़ा अपरम्पार करो
चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

जिस जगह से गंगा चलती है
यमुना भी वहीं निकलती है
वह पत्थर नहीं हिमालय है
ऋषि मुनियों का विद्यालय है
इस शान्ति भूमि पर इन्सानों नें
बहुत ही शोर मचाया है
चिल्लाता हूँ ऐ शैल शिखर
तुम जलो-जलो तुम और जलो
यहाँ रहना बहुत कठिन है प्रिये
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

कितनों के सपनें टूट गये
कितनों के अपनें रूठ गये,
प्रकृति का यह प्रतिकार हुआ
और मेघपुरी वार हुआ,
मानव की रचना बिखर गयी
इंसा की तबियत सिहर गयी
जिस जगह से मुक्ति मिलती थी
जीवन की कलियाँ खिलती थी
उस तपोभूमि के मंदिर का
सब खत्म हुआ बाजार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

पर्वत के अंचल की धरती
सिसक-सिसक कर कहती है
जुल्म हमारे बहुत दिनों से
धीरज पूर्वक सहती है
शान्त हो गया क्रोध वहाँ का
फिर से प्रेम बुलायेगा
दिव्यलोक का पैगम्बर
कुछ नियम बतानें आयेगा,
जय, जय हो गंगोत्री का
और यमुनोत्री की धार चलो
चमन हमारे रूद्रलोक का
होगा फिर गुलज़ार चलो,
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।
.........राजेश कुमार राय।.........